इमाम बाड़ा गुफरांमआब की शामे ग़रीबां पूरी दुनिया में मशहूर है | Imambara Gufran Ma'ab | Lucknow |
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5 سال پیش
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Channel- Sunil Batta Films
Channel- Sunil Batta Films
Documentary- Imambara Gufran Ma'ab , Lucknow
Produced & Directed by Sunil Batta, Voice- Navneet Mishra, Camera-Chandreshwar Singh Shanti, Production- Dhruv Prakesh, Camera Asst.- Runak Pal, Kuldeep Shukla,
Synopsis-
इमामबाड़ा गुफरांमआब
इस्लामी फ़न्ने तामीर में मस्जिदों और मक़बरों के बाद इमामबाड़ों का एक अहेम मुक़ाम है अगर इमाम बाड़ों की आराइश और रौनक़ देखना है तो मुहरर्रम के महीने में देखिये। साल के ग्यारह महीने तो उनके आराम का ज़माना है। मुहरर्रम का चांद नज़र आते ही उनकी रौनक़ो अज़मत अना असर छोड़ने लगती है।
इमामबाड़ा गुफरांमआब सब्जी मंडी के मशरिक़ में वाके़ है। इमामबाड़ा गुफरांमआब 1227 हिजरी मुताबिक 1812 ईसवी में मौलाना सैय्यद दिलदार अली साहब ने बनवाया था, जो हिन्दुस्तान में इमामिया मज़हब के पहले मुजतहिद थे। गुफरांमआब लक़ब बाद वफात हुआ। सैय्यद दिलदार अली साहब ने 1227 हिजरी में ज़मीन लेकर इमामबाड़ा बनवाया। इससे पहले लखनऊ में इमामबाड़ा आसिफी के एलावा दो इमामबाड़े और बने थे। एक इमामबाड़ा आग़ा अबू ताबिल जो कि हुसैनगंज में बाग़ आइना बीबी में वाके़ था लेकिन अब उस का नामो निशान भी बाक़ी नहीं रहा। दूसरा इमामबाड़ा आग़ा बाक़र ख़ां का था जो आज भी अपनी आन बान शान के साथ कायम है।
मौलाना दिलदार अली नक़वी उर्फ गुफरांमआब की विलादत 1166 हिजरी मुताबिक 1952 ईस्वी की शबे जुमा, नसीराबाद जिला़ रायबरेली के एक ज़ेराअत पेशा घराने में हुई।
आसिफुद्दौला ने जो मस्जिद और इमामबाड़ा बनवाया उसे तो मरहूम के हुस्नों नीयत ने तारीख़ी तामीर का दर्जा बख़शा और वह आज तक ज़ियारत गाह ख़लाएक़ है। इमामबाड़ा गुफरांमहाब ख़ुद मौलाना दिलदार अली ने लखनऊ में तामीर किया जो उनके वफाती लक़ब गुफरां मआब के इमामबाड़े का नाम से मशहूर है जो गुज़िश्ता कुछ बर्सों से अज़ सरे नौ तामीर हुआ है और हुनुज़ यह सिलसिला अभी जारी है। मौलाना दिलदार अली गुफरां मआब ने अपने वसीयत नामें में इमामबाड़े में तलबा को क़ियाम की सहुलत देने की निहायत ताकीद की हैं। इस इमाम बाड़े की ज़मीन में लातादाद अहले इल्म और कमाले अतिब्बा, ज़ाकिर, वाइज़ और उलामाए किराम ज़ेरे ज़मीन महवे ख़वाब हैं।
मशहूर शायर सफी लखनऊ, अज़ीज़ लखनवी, महशर और मेंहदी हुसैन ‘नासिर’ वग़ैरा मशाहीरे क़ौम ने अपनी नज़्मों में इस इमाम बाड़े का तआरूफ किया है। तारीख़ी और अदबी दुनिया में भी यह इमाम बाड़ा बहुत मशहूर है।
इमाम बाड़ा गुफरांमआब ज़माने क़दीम से मक़बूल ख़ासो आम है। हर जुमेरात को अक़ीदतमंद मर्द औरतों का तांता बंधा रहता है। शाम को हज़ारों का मजमा होता है। हदीस किसा कि तिलावत और हज़रत अली की शान में मुनाजात होती हैं और तबरर्रूक का दस्तरख़्वान भी बिछाया जाता है। औरतों की मस्लिस और मर्दों की मज्लिस दोनों का एहतिमाम होता है। अशरए मुहरर्म में शानदार और मख़सूस अंदाज़ की मज्लिसें उसकी गहमा गहमी में चार चांद लगा देती है। नौहा और मातम का सिलसिला भी इस इमामबाड़े में जारी रहता है।
यहां की अज़ादारी की ख़ास बात यह है कि यहां पर हर साल 29 के चांद के हिसाब से मज्लिसें होती हैं और यह सिलसिला 14 मुर्हरम तक बड़े ज़ोरो शोर के साथ चलता रहता है। नौहा और मातमों का सिलसिला बड़ी शिद्दत के साथ के साथ पहले से 10 मुहर्रम तक जारी रहता है। तारीख़ 6-7-8-9 को अलम और शबीह उठाए जाते हैं।
यहां की दस मुहर्रम की शामे ग़रीबां पूरी दुनिया में बहुत मशहूर है जोकि इसी इमामबाड़ा की ईजाद है। 11 मुहर्रम को यौमे जै़नब मनाया जाता है। 12 मुहर्रम को यौमे अब्बास की मस्लिसें मंअक़िद की जाती हैं। 13 और 14 की तारीखों में देसे की मजालिस का एहतिमाम होता है।
साल के आम दिनों में भी लोग अपनी मुरादें पूरी होने पर यहां पर मजालिस करवाते हैं। मन्नत के मिंम्बर चढ़ाते हैं, अपने मरहूमीन की याद में और उनके ईसालो सवाब के लिए आवाम यहां पर बरसी की मज्लिस और देसे की मज्लिसें की करते हैं जिसको लखनऊ के मशहूरो फारूफ उलामाए किराम खि़ताब फरमाते हैं।
इमामबाड़ा गुफरांमआब के मुतावल्ली हमेशा से ही मुल्क के नामवर उलामाए किराम रहे हैं। मौलाना कलबे हुसैन साहब मरहूम, मौलाना सैय्यद कल्बे आबिद मरहूम माज़ी में इमामबाड़े के मुतावल्ली रह चुके हैं जोकि शेहरए आफाक़ शोहरत के मालिक है।
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Documentary- Imambara Gufran Ma'ab , Lucknow
Produced & Directed by Sunil Batta, Voice- Navneet Mishra, Camera-Chandreshwar Singh Shanti, Production- Dhruv Prakesh, Camera Asst.- Runak Pal, Kuldeep Shukla,
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इमामबाड़ा गुफरांमआब
इस्लामी फ़न्ने तामीर में मस्जिदों और मक़बरों के बाद इमामबाड़ों का एक अहेम मुक़ाम है अगर इमाम बाड़ों की आराइश और रौनक़ देखना है तो मुहरर्रम के महीने में देखिये। साल के ग्यारह महीने तो उनके आराम का ज़माना है। मुहरर्रम का चांद नज़र आते ही उनकी रौनक़ो अज़मत अना असर छोड़ने लगती है।
इमामबाड़ा गुफरांमआब सब्जी मंडी के मशरिक़ में वाके़ है। इमामबाड़ा गुफरांमआब 1227 हिजरी मुताबिक 1812 ईसवी में मौलाना सैय्यद दिलदार अली साहब ने बनवाया था, जो हिन्दुस्तान में इमामिया मज़हब के पहले मुजतहिद थे। गुफरांमआब लक़ब बाद वफात हुआ। सैय्यद दिलदार अली साहब ने 1227 हिजरी में ज़मीन लेकर इमामबाड़ा बनवाया। इससे पहले लखनऊ में इमामबाड़ा आसिफी के एलावा दो इमामबाड़े और बने थे। एक इमामबाड़ा आग़ा अबू ताबिल जो कि हुसैनगंज में बाग़ आइना बीबी में वाके़ था लेकिन अब उस का नामो निशान भी बाक़ी नहीं रहा। दूसरा इमामबाड़ा आग़ा बाक़र ख़ां का था जो आज भी अपनी आन बान शान के साथ कायम है।
मौलाना दिलदार अली नक़वी उर्फ गुफरांमआब की विलादत 1166 हिजरी मुताबिक 1952 ईस्वी की शबे जुमा, नसीराबाद जिला़ रायबरेली के एक ज़ेराअत पेशा घराने में हुई।
आसिफुद्दौला ने जो मस्जिद और इमामबाड़ा बनवाया उसे तो मरहूम के हुस्नों नीयत ने तारीख़ी तामीर का दर्जा बख़शा और वह आज तक ज़ियारत गाह ख़लाएक़ है। इमामबाड़ा गुफरांमहाब ख़ुद मौलाना दिलदार अली ने लखनऊ में तामीर किया जो उनके वफाती लक़ब गुफरां मआब के इमामबाड़े का नाम से मशहूर है जो गुज़िश्ता कुछ बर्सों से अज़ सरे नौ तामीर हुआ है और हुनुज़ यह सिलसिला अभी जारी है। मौलाना दिलदार अली गुफरां मआब ने अपने वसीयत नामें में इमामबाड़े में तलबा को क़ियाम की सहुलत देने की निहायत ताकीद की हैं। इस इमाम बाड़े की ज़मीन में लातादाद अहले इल्म और कमाले अतिब्बा, ज़ाकिर, वाइज़ और उलामाए किराम ज़ेरे ज़मीन महवे ख़वाब हैं।
मशहूर शायर सफी लखनऊ, अज़ीज़ लखनवी, महशर और मेंहदी हुसैन ‘नासिर’ वग़ैरा मशाहीरे क़ौम ने अपनी नज़्मों में इस इमाम बाड़े का तआरूफ किया है। तारीख़ी और अदबी दुनिया में भी यह इमाम बाड़ा बहुत मशहूर है।
इमाम बाड़ा गुफरांमआब ज़माने क़दीम से मक़बूल ख़ासो आम है। हर जुमेरात को अक़ीदतमंद मर्द औरतों का तांता बंधा रहता है। शाम को हज़ारों का मजमा होता है। हदीस किसा कि तिलावत और हज़रत अली की शान में मुनाजात होती हैं और तबरर्रूक का दस्तरख़्वान भी बिछाया जाता है। औरतों की मस्लिस और मर्दों की मज्लिस दोनों का एहतिमाम होता है। अशरए मुहरर्म में शानदार और मख़सूस अंदाज़ की मज्लिसें उसकी गहमा गहमी में चार चांद लगा देती है। नौहा और मातम का सिलसिला भी इस इमामबाड़े में जारी रहता है।
यहां की अज़ादारी की ख़ास बात यह है कि यहां पर हर साल 29 के चांद के हिसाब से मज्लिसें होती हैं और यह सिलसिला 14 मुर्हरम तक बड़े ज़ोरो शोर के साथ चलता रहता है। नौहा और मातमों का सिलसिला बड़ी शिद्दत के साथ के साथ पहले से 10 मुहर्रम तक जारी रहता है। तारीख़ 6-7-8-9 को अलम और शबीह उठाए जाते हैं।
यहां की दस मुहर्रम की शामे ग़रीबां पूरी दुनिया में बहुत मशहूर है जोकि इसी इमामबाड़ा की ईजाद है। 11 मुहर्रम को यौमे जै़नब मनाया जाता है। 12 मुहर्रम को यौमे अब्बास की मस्लिसें मंअक़िद की जाती हैं। 13 और 14 की तारीखों में देसे की मजालिस का एहतिमाम होता है।
साल के आम दिनों में भी लोग अपनी मुरादें पूरी होने पर यहां पर मजालिस करवाते हैं। मन्नत के मिंम्बर चढ़ाते हैं, अपने मरहूमीन की याद में और उनके ईसालो सवाब के लिए आवाम यहां पर बरसी की मज्लिस और देसे की मज्लिसें की करते हैं जिसको लखनऊ के मशहूरो फारूफ उलामाए किराम खि़ताब फरमाते हैं।
इमामबाड़ा गुफरांमआब के मुतावल्ली हमेशा से ही मुल्क के नामवर उलामाए किराम रहे हैं। मौलाना कलबे हुसैन साहब मरहूम, मौलाना सैय्यद कल्बे आबिद मरहूम माज़ी में इमामबाड़े के मुतावल्ली रह चुके हैं जोकि शेहरए आफाक़ शोहरत के मालिक है।
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5 سال پیش
در تاریخ 1398/06/12 منتشر شده
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