उजड़ती हुयी दिल्ली की दास्तान। The story of Delhi being destroyed. History knowledge
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پارسال
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1236 का दौर, दिल्ली में
1236 का दौर, दिल्ली में सुल्तान शमसुद्दीन इल्तुतमिश की हुकूमत कायम थी, सुल्तान कारलुक के गढ़ बामयान की ओर एक मार्च पर थे तभी अचानक उनकी तबियत बिगड़ती है। उनके नजूमी उन्हें वापस दिल्ली लौटने की सलाह देते हैं। सुल्तान 20 अप्रैल को अपने नजूमियों के चुने हुए समय पर दिल्ली लौट भी जाते हैं। लेकिन इससे उनकी तबीयत में कोई खासा आराम नहीं होता है और 30 अप्रैल 1236 ई. को वो इस दुनिया से रुखसत हो जाते हैं। उनकी वफ़ात के बाद उन्हें मेहरौली में वाक़ये क़ुतुबमीनार के सहन में दफ़न किया जाता है।
तारीखी दस्तावेजों से मालूम होता है की शमशुद्दीन इल्तुतमिश एक मुत्तक़ी मुसलमान थे जिन्होंने रात को अपना ज्यादातर वक्त इबादत में गुजारा था। उन्होंने कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी, हमीदुद्दीन नागौरी, जलालुद्दीन तबरेजी, बहाउद्दीन ज़कारिया और नजीबुद्दीन नख़शबी सहित कई सूफ़ी बुजुर्गों का बहुत एहतराम किया था।
जब उलेमा के एक ग्रुप ने उन्हें हिन्दुओं के मजहबी तबदीली के लिए भरपूर तरीके से आगे बढ़ने का मशविरा दिया तो उन्होंने इस ख्याल को नाकाबिल अमल करार देकर इसे ख़ारिज कर दिया। उन्होंने अपनी बेटी रजिया को अपना जानशीन नामजद करने का गैर रिवायती फैसला करते वक्त उलेमा से कोई मशविरा नहीं किया। शरई और उस वक्त की अमली ज़रुरियात के दरमियान यह तवाजुन (Balance) दिल्ली में तुर्क हुकूमत की खुसूसियत बन गया।
जब दिल्ली के मशहूर सूफी बुजुर्ग ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की वफ़ात के बाद जब उनकी वसीयत पढ़ी गयी थी तो उसमे इस बात पर जोर दिया गया था की सिर्फ वही शख्स उनकी नमाजे-जनाज़ा पढ़ा सकता है जिसने कभी हराम काम न किया हो, और न ही कभी नमाजे असर की सुन्नत को छोड़ा हो। वसीयत पढ़ने के बाद महफ़िल में एक ख़ामोशी तारी हो गयी क्यूंकि तक़रीबन हर किसी ने वसीयत में लिखी बातों पर अमल नहीं किया था, आखिर में नम आँखों के साथ सुल्तान इल्तुमिश जमात से बाहर आये और बोले मैं अपने आप को (inner self) सब पर जाहिर जाहिर नहीं करना चाहता था लेकिन ख्वाजा बख्तियार काकी की मर्जी यही चाहती है बिलआख़िर सुल्तान इल्तुतमिश ने ही उनकी नमाजे-जनाज़ा पढ़ाई क्यूंकि वह वाहिद शख्स थे जिन्होंने ख्वाजा बख्तियार काकी की वसीयत में लिखी बातों पर अमल किया था।
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Voice: @mdakhlaque779
Regards
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जब उलेमा के एक ग्रुप ने उन्हें हिन्दुओं के मजहबी तबदीली के लिए भरपूर तरीके से आगे बढ़ने का मशविरा दिया तो उन्होंने इस ख्याल को नाकाबिल अमल करार देकर इसे ख़ारिज कर दिया। उन्होंने अपनी बेटी रजिया को अपना जानशीन नामजद करने का गैर रिवायती फैसला करते वक्त उलेमा से कोई मशविरा नहीं किया। शरई और उस वक्त की अमली ज़रुरियात के दरमियान यह तवाजुन (Balance) दिल्ली में तुर्क हुकूमत की खुसूसियत बन गया।
जब दिल्ली के मशहूर सूफी बुजुर्ग ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की वफ़ात के बाद जब उनकी वसीयत पढ़ी गयी थी तो उसमे इस बात पर जोर दिया गया था की सिर्फ वही शख्स उनकी नमाजे-जनाज़ा पढ़ा सकता है जिसने कभी हराम काम न किया हो, और न ही कभी नमाजे असर की सुन्नत को छोड़ा हो। वसीयत पढ़ने के बाद महफ़िल में एक ख़ामोशी तारी हो गयी क्यूंकि तक़रीबन हर किसी ने वसीयत में लिखी बातों पर अमल नहीं किया था, आखिर में नम आँखों के साथ सुल्तान इल्तुमिश जमात से बाहर आये और बोले मैं अपने आप को (inner self) सब पर जाहिर जाहिर नहीं करना चाहता था लेकिन ख्वाजा बख्तियार काकी की मर्जी यही चाहती है बिलआख़िर सुल्तान इल्तुतमिश ने ही उनकी नमाजे-जनाज़ा पढ़ाई क्यूंकि वह वाहिद शख्स थे जिन्होंने ख्वाजा बख्तियार काकी की वसीयत में लिखी बातों पर अमल किया था।
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در تاریخ 1402/02/13 منتشر شده
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