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Pragati Shorthand
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77 بار بازدید - ماه قبل - Nibandh Bodh P-238निजीकरण के फलस्वरूप
Nibandh Bodh P-238
निजीकरण के फलस्वरूप आर्थिक प्रगति के नए आयाम स्थापित हुए हैं। इसके द्वारा निजी क्षेत्र के साहस, कौशल तथा प्रबंधकीय क्षमता का सदुपयोग संभव हो पाता है। इसके अतिरिक्त प्रबंधकीय दक्षता, उत्पादन के विकास के नए आयाम प्रदान करती है जिससे लाभ का प्रतिशत बढ़ता है। साथ ही इससे दुर्लभ संस्थापकों का अपव्यय रोका जाता है। निजीकरण से कार्यकुशलता में वृद्धि होती है तथा उद्यम रुग्णग्रस्त नहीं हो पाता। साथ ही, निजीकरण से अपव्ययों, बर्बादियों, हानियों, कार्य-अक्षमताओं पर अंकुश लगता है तथा कर्मचारियों में लागत, परिणाम, कार्य-निष्पादन तथा समय संबंधी जागरुकता का उदय होता है। निजीकरण की प्रक्रिया से बाजार में प्रतिस्पर्धा बढ़ती है, मांग और पूर्ति का सीधा संबंध कायम होता है, अर्थव्यवस्था उन्नति के पथ पर अग्रसर होती है, नियति की संभावनाएं प्रबल होती हैं तथा आयात प्रतिस्थापना का मार्ग भी सुगम होता है।

उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि निजीकरण की प्रक्रिया अपनाने से सरकार को बिना कर बढ़ाए भारी मात्रा में राजस्व प्राप्त होता है तथा शेष सार्वजनिक क्षेत्र भी बाजार में जम सकने में समर्थ हो पाते हैं। इसके अतिरिक्त निजीकरण की प्रक्रिया में विदेशी पूंजी का निवेश अर्थव्यवस्था में अतिरिक्त संसाधनों की वृद्धि करता है। अर्द्धविकसित और विकासशील अर्थव्यवस्था के लिए तो विदेशी पूंजी निवेश, प्रवर्तन तथा उद्यम के बल पर नवीनतम क्षेत्रों को ढूंढ पाने में भी समर्थ होते हैं जिससे अर्थव्यवस्था जीवंत हो उठती है। साथ ही, अर्थव्यवस्था में गुणात्मक नियंत्रण बना रहता है। विदेशी उद्यमियों की उच्च तकनीक एवं प्रबंधकीय कौशल से रोजगार के नए क्षेत्र खुलते हैं। मानवश्रम में गतिशीलता आती है तथा प्रकारांतर से ये घरेलू श्रमिकों को शिक्षण-प्रशिक्षण एवं तकनीकी जानकारी देकर सफल मानव-पूंजी निर्माण में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

निजीकरण के अभावात्मक परिणामों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है उपभोक्तावादी संस्कृति का उदय। निजी उद्यमी प्रायः अल्प परिपक्वावस्था वाले उद्यमों जैसे-साबुन, टूथपेस्ट आदि की ओर आकर्षित होते हैं, जिसमें लाभ की अपार संभावनाएं होती हैं। बेहतर प्रचार माध्यमों का सहारा लेकर अपने उत्पादों को बेचने की होड़ सी मच जाती है। अनेकानेक लुभावनी / शर्तों का जाल बिछाया जाता है ताकि अधिक-से-अधिक लोग उनके उत्पादों के प्रति आकर्षित हो सकें। इस स्थिति में, जिन लोगों के पास टी.वी., फ्रिज, वाशिंग मशीन आदि उत्पादों को खरीदने की शक्ति नहीं होती, वे इन्हें प्राप्त करने के लिए अपने नियमित आय के साधनों के अतिरिक्त अन्य स्रोतों की तलाश में निकल पड़ते हैं, जिससे सामाजिक संतुलन की स्थिति में अव्यवस्था आ जाती है। उपभोक्तावादी संस्कृति ने व्यक्ति को समष्टि के लिए तथा समष्टि को व्यक्ति के लिए जीने की मूल भावना का ही नाश कर डाला है।
ماه قبل در تاریخ 1403/04/04 منتشر شده است.
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