‘‘तारीखे़ लखनऊ’’ में लिखा है कि...।दरगाह हज़रत अब्बास । Ziarat e Dargah Hazrat Abbas (A.S)। Lucknow।

Sunil Batta Films
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24.4 هزار بار بازدید - 6 سال پیش - Channel- Sunil Batta Films
Channel- Sunil Batta Films
                             Documentary- Ziarat e Dargah  Hazrat Abbas (A.S)
Produced & Directed by Sunil Batta, Voice- Navneet Mishra, Camera-Chandreshwar Singh Shanti, Production- Dhruv Prakesh, Camera Asst.- Subhash Shukla.
Synopsis-  
                                                      दरगाह हज़रत अब्बास
                    नवाब असिफुद्दौला आले मुहम्मद के शैदाई की हैसियत से ज़िन्दा रहे और उम्र भर जोशे दीनदारी को बरक़रार रक्खा। आसिफी इमाम बाड़े के अलावा उन का एक कारनामा दरगाहे हज़रत अब्बास की अव्वलीन तामीर है। लखनऊ में इमाम बाड़ों के साथ ही मज़ाराते मुक़द्दसा की शबीहें भी मौजूद है। दरगाह हज़रत अब्बास उन में एक है।
                  हज़रत अब्बास, हज़रत इमाम हुसैन के भाई थे और करबला के मैदान में इमाम हुसैन की नुसरत में 10 मुहर्ररम 61 हिजरी को आप ने शहादत पाई। आप को अलमदारे करबला कहा जाता है क्यों कि रोजे़ आशूरा इमाम हुसैन ने आप को अपने दस्ता का अलम देकर सिपाहसालार मुक़र्रर किया था। आप हमेशा इमाम हुसैन के परवाने व शैदाई रहे। आप बेहद वफा शेआर थे और आप की बहादुरी ज़बु्रल मिस्ल थी। आप मैदान में लड़ने ही नहीं गये थे बल्कि बच्चों के लिए दरया से पानी लाना भी मक़सूद था जिस को दुश्मन ने घेर रख्खा था। मैदाने जंग की तरफ आप की रवानगी मख़सूस तर्ज़ की थी । अपनी भतीजी से पानी लाने का वादा करके उससे एक मश्क़ मंगाकर अपने अलम में बांध ली थी। लड़ाई लड़ते हुए दरयाए फुरात तक पहुंचने में कामियाब हो गये और मश्क़ में पानी भी भर लिया, लेकिन पानी अहले हरम के ख़ेमे तक नहीं पहुंच सका और आप की शहादत दरया के किनारे ही वाक़े हो गयी।
                इन्हीं हज़रत अब्बास के नाम से वह दरगाह मन्सूब है जिस का हम ज़िक्र कर रहे है। यह दरगाह लखनऊ के मग़रिबी हिस्से में मुहल्ला रूस्तम नगर में वाके़ है। यह वह इलाक़ा है जहां रौज़अे काज़िमैन, फातिमैन, करबलाए दियानतुद्दौला और इमाम बाड़ा मुग़ल साहिबा भी आस पास वाके़ हैं। इस तरह यह पूरा इलाका़ तारीखी़ अहमियत का हामिल है।
              दरगाह हज़रत अब्बास की इब्तेदा के बारे में बताया जाता है कि मिर्ज़ा फक़ीर बेग के एक शख़्स ने ख़्वाब देखा, कि एक बुजुर्ग उन से कह रहे है कि बैरूने शहर सरफराजगंज व मूसाबाग़ में अलम ज़मीन में दफन है। सुबह उठ कर उन्होंने लोगों की मदद से मुतअल्लिका़ ज़मीन को खोदना शुरू किया, और वहां से एक अलम बरआमद हुआ। फक़ीर बेग, हज़रत अब्बास के शैदाई थे और उनकी ख्वाहिश एक रौज़ा तामीर कराने की थी। इस अलम को मिर्जा़ साहब ने अदबो एहतेराम के साथ अपने घर के हिस्से में नस्ब कर दिया। यह वाके़आ आसिफद्दौला के ज़माने का बताया जाता है।
            नवाब आसिफुद्दौला 1775 से लेकर 1797 ईस्वी तक मसनदनशी रहे। तारीख़ी दस्तावेज़ात में इस बात का ज़िक्र मिलता है कि नवाब आसिफुद्दौला अय्यामें मुहर्ररम में जरूर दरगाह हज़रत अब्बास की ज़ियारत किया करते थे।
           नसीरूद्दीन शाह के अहद में यह रेवायत भी शुरू हुई थी नया बादशाह जो होता था वह इस दरगाह हज़रत अब्बास में सलाम को आता था। इसी ज़माने से यहां दूलहा दुलहन सलाम के लिए आने लगे। मौलाना आग़ा मेहदी ने ‘‘तारीखे़ लखनऊ’’ में लिखा है कि अंग्रेज़ मुअर्रिख़ीन ने इस दरगाह में पचास हज़ार सोने चांदी के अलमों के चढावे का सालाना औसत का ज़िक्र किया है। वह लिखते है कि जब वाजिद अली शाह अपनी सलतनत खोने के बाद लखनऊ से कलकत्ता रवाना हुए तो अपनी तलवार और करोड़ों रूपये की मालियत का ताज इसी दरगाह में चढ़ा गए थे।
         इस दरगाहे आलिया में 17 शाबान को जशने  विलादते अब्बास मनाया जाता है, जिस का सिलसिल रात भर जारी रहता है। इस के अलावा यौमे आशूरा की सुबह एक रिवायती अलम उठ कर दरगाह हज़रत अब्बास में आता है।




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6 سال پیش در تاریخ 1397/01/29 منتشر شده است.
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